विलुप्त होती गौरैया – कहाँ गयी वह नन्ही फुदकन , जो आँगन में आती थी

(विलुप्त होती गौरैया)
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कहाँ गयी वह नन्ही फुदकन , जो आँगन में आती थी !
मधुर मधुर कलरव वह करके , सबका मन हर्षाती थी !
कभी मुंडेर पर , कभी पेड़ पर , कभी मेंड़ पर जाती थी !
कभी घास पर , कभी बांस पर , फिर प्रवास कर जाती थी !
क्रीड़ा जिनकी देख देख कर , था मेरा बचपन बीता !
बिन कलरव अब उनके जाता , आज मेरा जीवन रीता !
गाढ़ी भूरी मटमैली सी , रेखा काली पंख जडैया !
ताल तलैया एक चिरैया , प्यारी छोटी सी गौरैया !
पोखर क़स्बा क्या गाँव शहर , हर नदी नहर हर डगर डगर !
रही निरंतर उर अभ्यंतर , बन परिचर मानव की सहचर !
चीं चीं चीं चीं कलरव करके , घर आंगन जिसने महकाया !
अवहेलित उपेक्षित करके , मनु ने इनका किया सफाया !
कहाँ गयी वह नित बागों की , मधु मोहक सी एक झनक !
कहाँ गयी वह नित आँगन की , अवगुंठित सी एक फुदक !
ढूंढ रहा मैं नित ही निरंतर , वह नन्हीं सी एक चिरैया !
फुदक फुदक कर चीं चीं करती ,प्यारी छोटी सी गौरैया !
– Shwetabh Pathak ( श्वेताभ पाठक )