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Nigrahacharya Shri Bhagavatananda Guru – समानगोत्रप्रवर में विवाह के दोष का शाकद्वीपीयों में अपवाद

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समानगोत्रप्रवर में विवाह के दोष का शाकद्वीपीयों में अपवाद

श्रीमद्भागवत के निमियोगीश्वर संवाद तथा श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञानकर्मसंन्यासयोग के अनुसार कर्म, अकर्म और विकर्म, यह तीन भेद हैं, जिनमें बड़े बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं।

कर्माकर्म विकर्मेति वेदवादो न लौकिकः।
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्तत्र मुह्यन्ति सूरयः॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध – ११, अध्याय – ०३, श्लोक – ४३)

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय – ०४, श्लोक – १७)

वेदों के द्वारा निर्दिष्ट कृत्य को कर्म कहते हैं। निषिद्ध कृत्य को अकर्म कहते हैं। निर्दिष्ट कृत्य में मनमानी को विकर्म कहते हैं, अतः बहुत सूक्ष्मता से इनका विचार करना चाहिए क्योंकि कर्म की गति बड़ी गहन है – गहना कर्मणो गतिः।

कर्म को छोड़ने से भी दोष है एवं अकर्म को करने से भी दोष है। विकर्म को और भी निन्द्य समझना चाहिए। जीवेम शरदः शतम् के अनुसार सौ वर्षों की सामान्य वेदोक्त आयु प्राप्त करने वाला मनुष्य भी विकर्म के कारण अल्पकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

मानुषः शतजीवीति पुरा वेदेन भाषितम्।
विकर्मणः प्रभावेण शीघ्रञ्चापि विनश्यति॥
(गरुडपुराण, प्रेतकाण्ड, अध्याय – २४, श्लोक – १०)

भगवती गीता में देवी पार्वती कहती हैं कि श्रुतिस्मृति (एवं उनके तत्तदंशों का स्वशैली में व्याख्यान करने वाले अन्य ग्रन्थों) के द्वारा प्रतिपादित विषय धर्म हैं। इससे इतर शास्त्रों के कथन धर्माभास हैं। बाहर से देखने पर धर्म के समान लगते हैं, किन्तु वस्तुतः धर्म होते नहीं, अतः वैदिकों के द्वारा अग्राह्य हैं।

श्रुतिस्मृतिभ्यामुदितं यत्स धर्मः प्रकीर्तितः।
अन्यशास्त्रेण यः प्रोक्तो धर्माभासः स उच्यते॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कन्ध – ०७, अध्याय – ३९, श्लोक – १५)

सत्पुरुष धर्म एवं धर्माभास के मध्य धर्मानुबन्ध की भी चर्चा करते हैं। सामान्यतः बाहर से अधर्म के समान लगने पर भी अन्दर से जो धर्म हो, वह धर्मानुबन्ध है। बाहर से धर्म के समान लगने पर भी अन्दर से जो अधर्म हो, वह धर्माभास है।

धर्म के ज्ञान हेतु क्रमशः वेद, फिर अन्य धर्मशास्त्र और अन्त में लोकाचार का आश्रय लेना चाहिए, ऐसा महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में कहते हैं –

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।
द्वितीयं धर्मशास्त्राणि तृतीयं लोकसंग्रहः॥

मनुस्मृति भी इस बात से सहमति व्यक्त करती है। इन विषयों के धर्मबोध में अस्पष्टता होने पर मीमांसा शास्त्र से उसका समाधान करना चाहिए, यथा आचार्य कुमारिलभट्ट का कथन है –

धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदेन करणात्मना।
इतिकर्तव्यताभागं मीमांसा पूरयिष्यति॥

धर्माचरण को वर्णभेद, आश्रमभेद, क्षेत्रभेद, कालभेद और उद्देश्यभेदादि से कई अनुशासनों में बद्ध किया गया है। प्रत्येक क्रिया प्रत्येक वर्ण, आश्रम, क्षेत्र, काल और उद्देश्य में समान ही हो, यह आवश्यक नहीं है। बिना कर्ता की स्पष्टता के, दूध का व्यापार करना न धर्म है और न अधर्म है। वैश्य के द्वारा करने पर यही क्रिया धर्म बन जाती है और ब्राह्मण के द्वारा किए जाने पर अधर्म। कुछ कृत्य क्षेत्र के आश्रय से भी विहित और निषिद्ध बन जाते हैं। ‘दक्षिणे मातुली कन्या उत्तरे मांसभक्षणम्’ आदि के आश्रय से दक्षिण में मामा की पुत्री से विवाह और उत्तर में मांसभक्षण का क्षेत्राचार से समर्थन करते हैं। यद्यपि यह भी शुद्ध धर्म नहीं है किन्तु कालक्षेप की शिष्टसम्मत विप्रतिपत्ति से उस क्षेत्र के लोगों के लिए ग्राह्य हो जाता है। दक्षिण के इस लोकाचार के सम्बन्ध में महर्षि बौधायन का कथन है –

अब्रह्मचारिदाराद्यैः सार्द्धं भोजनकर्म च।
मातुलादिसुतायाश्च विवाहः शिष्टसम्मतः॥

उत्तर के लोकाचार के सम्बन्ध में महर्षि वेदव्यास का कथन है –

समुद्रयानं मांसस्य भक्षणं शास्त्रजीविका।
सीधुपानमुदीच्यानामविगीतानि धर्मतः॥

ऐसे ही यद्यपि सामान्यतः स्त्रियों के लिए शङ्ख बजाने का निषेध शास्त्रों में वर्णित है, क्योंकि इससे लक्ष्मी की हानि होती है, यथा श्रीमद्देवीभागवत में कहते हैं –

स्त्रीणां च शङ्‌खध्वनिभिः शूद्राणां च विशेषतः।
भीता रुष्टा याति लक्ष्मीस्तत्स्थलादन्यदेशतः॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, स्कन्ध – ०९, अध्याय – २३, श्लोक – २७/२८)

यही श्लोक थोड़े भेद के साथ ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय – २० के श्लोक – ३१ (कुछ प्रतियों में ३०) में भी प्राप्त होता है। किन्तु ऐसे ही क्षेत्राचार की शिष्टसम्मत विप्रतिपत्ति से “प्राच्यां स्त्रीशङ्खवादनम्” के आधार पर पूर्वदिशा में स्थित असम, बंगाल की स्त्रियां शङ्खवादन करती हैं।

सामान्यतः शास्त्रसिद्धान्त है कि अपने समान गोत्र वाली कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए। यदि विवाह करके उससे सन्तान की उत्पत्ति कर ली तो उस सन्तान की चाण्डाल के समान संज्ञा जानकर उनके ही मध्य छोड़ दे और गुरुतल्पगमन का प्रायश्चित्त (चान्द्रायण आदि भी) करके उस सगोत्रा पत्नी का मातृभाव से पालन करें –

न सगोत्रां न समानार्षप्रवरां भार्यां विन्देत।
(बृहद्विष्णुस्मृति, अध्याय – २४, आज्ञा – ९)

परिणीय सगोत्रां तु समानप्रवरां तथा।
त्यागं कृत्वा द्विजस्तस्यास्ततश्चान्द्रायणञ्चरेत्॥
(स्कन्दपुराण, ब्रह्मखण्ड-धर्मारण्यखण्ड, अध्याय – २१, श्लोक – १०)

सगोत्रायां प्रजां जातां चण्डालेषु विनिक्षिपेत्।
गुरुतल्पव्रतं कृत्वा तां रक्षेज्जननीमिव॥
(संस्काररत्नमाला, भाग – ०१, द्वादश प्रकरण)

यह तो अज्ञानता से सगोत्रविवाह हेतु कहा। जानबूझकर सगोत्रविवाह वाले को वृद्धयम ने तो और भी कठोर प्रायश्चित्त बताते हुए प्राणत्याग करने कहा है – सपिण्डापत्यदारेषु प्राणत्यागो विधीयते। किन्तु शिष्टसम्मत विप्रतिपत्ति में कुछ क्षेत्रभेद से अधर्म भी धर्म का तथा धर्म भी अधर्म का विक्षेपधारक हो जाता है।

जैसे हमने महर्षि बौधायन के वचनों से बताया कि यद्यपि मामा की पुत्री से विवाह निषिद्ध है किन्तु दक्षिण में शिष्टसम्मत विप्रतिपत्ति से उस स्थान के लोगों के लिए यह मान्य हो जाता है, अन्य जनों के लिए नहीं, इसी का समर्थन देवगुरु बृहस्पति भी करते हैं –

उदूह्यते दाक्षिणात्यैर्मातुलस्य सुता द्विजैः।
मत्स्यादाश्च नराः पूर्वे व्यभिचाररताः स्त्रियः॥

कर्म भी श्रुतिसम्मत न्याय्य और श्रुतिविरुद्ध वैपरीत्यभेद से व्यवहारप्रभक्त हो जाता है – न्याय्यं वा विपरीतं वा (श्रीमद्भगवद्गीता) अतः स्मृतिकार देवल स्पष्ट करते हैं –

यस्मिन्देशे त्वनाचारो न्यायदृष्टः सुकल्पितः।
स तस्मिन्नेव कर्तव्यो नान्यदेशे स ईरितः॥
यस्मिन्देशे पुरे ग्रामे त्रैविद्ये नगरेऽपि वा।
यो यत्र विहितो धर्मस्तं धर्मं न विचारयेत्॥

जो अधर्म जिस देश में न्यायसम्मत हो, भली प्रकार से स्थापित हो, उस देश में ही वह कृत्य उसके निवासी करें, अन्य जनों के लिए कदापि नहीं। जिस देश, पुर, ग्राम, अपनी अपनी वेदशाखाओं में, नगर आदि में जो धर्म जैसा बताया गया हो, उसका वैसा ही, अन्यथा विचार किए बिना पालन करना चाहिए। शास्त्रे सिद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयम्।

चतुर्वर्गचिन्तामणिकार आचार्य हेमाद्रि, निर्णयसिन्धुकार आचार्य कमलाकरभट्ट, ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्डकार पण्डित ज्वालाप्रसादमिश्रप्रभृति आचार्यों ने शास्त्रालोडन करके मगाख्य शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को दिव्य ब्राह्मण की संज्ञा के साथ स्वीकार किया है। भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व में जब गौरमुख मुनि ने “मगो दिव्यो द्विजोत्तमः” कहा तब श्रीकृष्णपुत्र साम्ब ने महर्षि वेदव्यास से “दिव्येति ते कथं प्रोक्ताः”, ऐसा प्रश्न किया। महर्षि वेदव्यास ने बहुत विस्तार से शाकद्वीपीय ब्राह्मणों में मगत्व, भोजकत्व, वाचकत्व, दिव्यत्वादि का विस्तार से निरूपण किया है, जो भविष्यपुराण, साम्बपुराण, ग्रहयामलतन्त्र आदि में द्रष्टव्य है।

साम्ब को शापभोग से कुष्ठ होना, उनका सुमन्तु, गौरमुख एवं वेदव्यासजी के अनुग्रह तथा मार्गदर्शन से सूर्याज्ञा प्राप्त करके शाकद्वीप में जाकर दिव्यता से युक्त सूर्यांश शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का आनयन करके जम्बूद्वीप में लाना और सूर्यसम्बन्धी अनुष्ठान से शापमुक्त होना, यह सब इतिहास सुप्रसिद्ध हैं, अतः उनका उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझता हूँ। महर्षि शातातप कहते हैं –

मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च।
समानप्रवराञ्चैव त्यक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्॥

अपने मामा की पुत्री एवं मातापिता के समानगोत्रप्रवर की कन्या से विवाह यदि हो जाए तो उसका परित्याग करके चान्द्रायणव्रत करे। किन्तु जैसे मामा की पुत्री से विवाह करना सामान्यतः निषिद्ध होने पर भी बौधायन, बृहस्पति, देवल आदि के शिष्टसम्मत विप्रतिपत्तिमीमांसक वचनों के आश्रय से दाक्षिणात्यों के लिए मातुलीकन्या का ग्रहण मान्य हो जाता है, वैसे ही शाकद्वीपीय ब्राह्मणों हेतु पुरभेदप्राधान्यता से सगोत्रविवाह शिष्टसम्मत विप्रतिपत्ति में ग्राह्य हो जाता है, जबकि अन्य ब्राह्मणों में यह अपवाद नहीं।

दिव्य शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के जम्बूद्वीप में आने के बाद ही उनका द्वीप नैमित्तिक रूप से प्रलयीभूत हो गया था, फलतः शाकद्वीपीयों के मात्र बहत्तर पुरों में विभक्त अष्टादशकुल ही शेष बचे थे। कुलरक्षण हेतु माता सत्यवती के आदेश को धर्मानुबन्ध मानते हुए महर्षि वेदव्यासजी ने नियोगविधि से आशीर्वादात्मक गर्भाधान करके पुत्रोत्पादन किया क्योंकि कुलधर्म और जातिधर्म को किसी भी प्रकार बचाना चाहिए, अन्यथा घोर नरक में जाना पड़ता है –

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय – ०१, श्लोक – ४०)

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय – ०१, श्लोक – ४४)

अब कुलधर्म क्या है, इसमें उपर्युक्त श्लोकों के व्याख्यानांश में स्वामिश्री मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं – कुलधर्मा असाधारणाश्च। कुलधर्म असाधारण होता है, सबों पर साधारणतः लागू नहीं अपितु मात्र उस कुल पर लागू होता है। स्वामिश्री आनन्दगिरि ने अपनी टीका में लिखा – वंशप्रयुक्ताश्च धर्माः। कुलधर्म वह है, जो उस वंशमात्र में प्रयुक्त है। स्वामिश्री गोपालानन्दमुनि स्पष्ट करते हैं – कुलधर्माः – कुलपरम्परया समागताः स्वासाधारणा धर्माश्च। अपनी कुलपरम्परा से प्राप्त मात्र अपने लिए विहित असाधारण धर्म को कुलधर्म कहते हैं। कुलधर्म पालनीय है –

उत्कृष्टजातिशीलानां गुर्वाचार्यतपस्विनाम्॥
गोत्रस्थितिस्तु या तेषां क्रमादायाति धर्मतः।
कुलधर्मं तु तं प्राहुः पालयेत्तं तथैव तु॥
(बृहत्कात्यायनस्मृति, श्लोक – ८४-८५ )

स्मृतिकार कात्यायन का कथन है – उत्कृष्ट कुल, जाति और शील वाले गुरु, आचार्य एवं तपस्वियों की जो गोत्रस्थिति धर्मानुसार कालक्रम से आती है, उसे कुलधर्म कहते हैं एवं उसका “उसी रूप में पालन” करना चाहिए।

स्वद्वीपनाशान्तर बचे खुचे अष्टादश पुण्यात्मा शाकद्वीपीय परिवारों के चित्त में अपने समाज के संरक्षण की चिन्ता व्याप्त होने पर उन्होंने शाकद्वीप में चली आ रही गोत्रस्थिति के आश्रय से यह विचार किया कि शाकद्वीपीयों के विवाह में ‘पुर’ की प्रधानता होगी, गोत्र की नहीं। चूंकि मगसंज्ञक शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का सृजन स्वयं भगवान् सूर्य ने निक्षुभा देवी के माध्यम से किया था, फलतः वे वंशविस्तार हेतु आर्षगोत्रमर्यादा में अनन्य नहीं थे। शाकद्वीपीयों में पुर की प्रधानता होती है। पुर क्या है ?

आरान्तानि तु विंशति श्रुतियुतार्कान्तानि च द्वादशा –
दित्यान्तानि च मण्डलान्तकिरणान्तान्तानि च द्वादशः।
तान्येतानि पुराणि तत्र वसतां षट्कर्मणां सिद्धिता
शौचाचारवशीकृता जनपदाः साक्षाद्रविं मेनिरे॥०१॥
उर्वारं प्रथमं द्वितीयमभितः पुण्यं खनेट्वारकं
छेर्यारं तु तृतीयकञ्च मखपारं तुर्यकं पञ्चमम्।
विख्यातञ्च पुरारमुग्रभवनं षष्ठं बुधैः सेवितं
देकुल्यारमतोऽथ सप्तमभलुन्यारं जगुः पण्डिताः॥०२॥
(मगतिलक, तृतीय खण्ड, द्वासप्ततिपुरवर्णनम् ‘पाण्डुलिपि’)

चौबीस आरान्त, बारह अर्कान्त, बारह आदित्यान्त, बारह मण्डलान्त एवं बारह किरणान्त, ऐसे बहत्तर पुरों में शाकद्वीपीय ब्राह्मण विभाजित हैं। इन्हीं बहत्तर पुरों में रहते हुए शाकद्वीपीय ब्राह्मण विप्रोचित षट्कर्म (यज्ञ करना-कराना, दान देना-लेना, पढ़ना-पढ़ाना) में सिद्धहस्त होकर पवित्र आचरण के साथ रहते हुए साक्षात् सूर्यवत् प्रतीत होते थे। उदाहरणस्वरूप – आरान्तों में प्रथम उर्वार, द्वितीय खण्टवार, तृतीय छेर्यार, चतुर्थ मखपार, पञ्चम पुरार, षष्ठ दे’व’कुल्यार एवं सप्तम भलुन्यार होते हैं। इसी प्रकार अन्यों को भी कुलधर्मशासक ग्रन्थों में वर्णित किया गया है।

‘उर्वार’ से प्रारम्भ करके ‘वौर्यार’ पर्यन्त शाकद्वीपीयों के चौबीस आरान्त पुर होते हैं। ‘उल्वार्क’ से प्रारम्भ करके ‘उल्लूञ्चार्क’ पर्यन्त शाकद्वीपीयों के बारह अर्कान्त पुर होते हैं। ‘वरुणादित्य’ से प्रारम्भ करके ‘देवहुलासादित्य’ पर्यन्त शाकद्वीपीयों के बारह आदित्यान्त पुर होते हैं। ‘परिशामण्डल’ से प्रारम्भ करके ‘वटसारमण्डल’ पर्यन्त शाकद्वीपीयों के बारह मण्डलान्त पुर होते हैं। ‘पञ्चहाकरण’ से प्रारम्भ करके ‘कौशिककरण’ पर्यन्त शाकद्वीपीयों के बारह करणान्त/किरणान्त पुर होते हैं। मैं स्वयं शाकद्वीपीयों की पुरव्यवस्था के प्रथम समूह आरान्त के दूसरे प्रकार खण्टवार पुर से सम्बन्धित हूँ।

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के कुलाचार में वर्णित शिष्टसम्मत विप्रतिपत्ति मीमांसा के आधार पर “ततो निवेशितं तेषां मया साम्ब पुरं स्मर, इत्यादि सूर्यवाक्येन शाकद्वीपे यौनसम्बन्धेन मगैरधिष्ठितानि यानि पुराणि आर्यावर्ते च तथाभेदेनाधिष्ठितानि यानि पुराणि तत्तत्पुरभेदमाश्रित्यैव मगानां विवाहो न तु गौणवशिष्ठादिगोत्रभेदमादायेति बोद्ध्यम्।” आदि कुलधर्मोपदेशक मगतिलकादि शिष्टकुलवृद्धसम्मत विप्रतिपत्युपदेष्टा ग्रन्थों के विधान से समझना चाहिए कि पुरभेदाश्रित वैवाहिक विधि के कारण “यदि पुरभेद हो रहा हो” तो शाकद्वीपीयों में सगोत्रविवाह का दोष नहीं लगता है, शेष ब्राह्मणों के सापेक्ष यह एक अपवाद के रूप में मान्य है। फिर भी पुर, गोत्र, प्रवर सब भिन्न हो, सपिण्डसम्बन्ध-हेतुसम्बन्ध आदि से इतर वरकन्या हों तो सर्वोत्तम है। यदि न हों तो स्वकुलवृद्धगृहीत पूर्वोक्तविधान से पुरभेदाश्रित सगोत्रीय विवाह मात्र शाकद्वीपीय ब्राह्मणों हेतु सामान्यतः ग्राह्य हो जाता है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
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